Sunday 2 November 2014

जिंदगी


पहाड़ों की चोटिओं पर
पिघलती है बर्फ जब 
होता है जन्म एक धारा का 
लगती है बहने जो 
धीरे धीरे

पत्थरों और पेड़ों से 
करती खिलवाड़ सी
कभी पत्थर के ऊपर से 
कभी नीचे से
कभी अगल बगल से
निरंतर बढ़ती जाती है

जब गिरती है ऊँचाइयों से
 पकड़ती है गति वो 
 बिखरी धारा छोटी छोटी
संभलती सी एक होती   
बड़ी और गहरी होती जाती है

चंचल प्रवाह
पथरों से टकराना
पहाड़ों की ढलान पे
निर्विरोध आगे बड़ते जाना 
भयावह भवर का प्रदर्शन 
है उसका उन्माद ये 
यौवन का आभास ये 

जब बड़ी हो कर 
नदी का रूप लेती 
पहुँचती है मैदानों में
सतह पर समतल शांत बहती जाती है 
बचपन और लड़कपन बीता
जीवन का नया अध्याय होता आरंभ है 
सामने उसके एक लम्बा सफ़र 
जीवन की सच्चाई को
देखने का समझने का अवसर 

फिर मिलता है इन्सान उसे
दूषित कर जहर पीने को 
करता है विवश उसको
नियम और व्यवस्था का 
सबक सिखाता है उसको 
बाँध बना कर रोक देता है 
उसके उल्हास को
उसकी स्वतंत्रता को
काट कर उसको नहरें निकाल देता है
और उसका लहू 
किसी और को पिला देता है 

शोषण का शुभारम्भ  
अब जीवन उसके अपने हवाले नहीं
कोई और करता है निर्णय उसके लिये
और ये ताड़ना चलती है लगातार
हर पल कुछ और जहर 
घोल दिया जाता है उसमें 

सब सहती रोती चिल्लाती 
बहती रहती है वो 
आखिर एक दिन 
नजर आने लगता है
एक समन्दर जो उसका 
इंतज़ार करता है हरदम
अपने में समाने को
उसके हर मैल को धोने को
एक बार फिर बिन बाँध के
स्वतन्त्र हो जाने को

क्या ख़बर ये पानी फिर उडेगा
फिर जा पहुंचेगा पहाड़ों की ऊँचाइयों पर 
बर्फ गिरेगी लेकिन 
एक दिन फिर पिघलेगी
और शुरू होगा एक नया जीवन
आत्मा वोही जो 
समुद्र रूपी विशाल आत्मा में 
विलीन हो गए थी
लौट आयी 
आज फिर एक नयी यात्रा की शुरुआत 
इन्सान क्या तेरी भी ऐसी ही बात  ....

                                   ........इंतज़ार





No comments:

Post a Comment