Tuesday 30 December 2014

Sunday 28 December 2014

प्यार करियो ना ... एक गीत


प्यार करिओ ना
किसी पे तु मरिओ ना

चकोरी गा गा  
चाँद रिझावे
चाँद ज़मी पे ना आवे
चकोरी गा गा
कंठ सुकावे
चाँद तरस ना खावे
मोर झूठा नाच दिखा के
मोरनी को उकसावे
कामदेव का पाठ पढ़ा के
दूर कहीं उड़ जावे

प्यार करिओ ना
किसी पे तु मरिओ ना

कविराज भी लीप पोत के
मधुर गीत सुनावेंगे
सतरंगी असमानों पे उड़ने के
झूठे सपने दिखलावेंगे
खुद तो गहरी चोट खा के
कवि शायर बन जावेंगे
औरों को फिर आग लगाके
प्यार की आंधी चलवावेंगे

प्यार करिओ ना
किसी पे तु मरिओ ना

दुनियाँ भर की बात बनाके
तुझे ये बांवरा बनावेंगे
भवरों और फूलों के किस्से सुनाके
तेरे अरमानों को भड़कावेंगे
कैद परिंदों को पिंजरों में कर के
सातवें असमान पे उड़वावेंगे
इनकी बातें सुन सुन के
कई दिल पिघल भी जावेंगे

मगर तु प्यार करिओ ना
किसी पे तु मरिओ ना

भ्रांती की ये बातों तु सुनिओ ना
तु पहली सीड़ी चढ़िओ ना
तु प्यार किसी से करिओ ना
जब दुःख के बदलाँ  घिर आवेंगे
तुझ को अपने जैसा कवी बनावेंगे
तेरे हाथ फिर दे कलम दवात
असफ़ल प्यार के सफल गीत लिखवावेंगे

तु प्यार करिओ ना
किसी पे तु मरिओ ना...
                                    ........इंतज़ार




Saturday 27 December 2014

सपनों में प्यार का सपना......गीत


सपनों में प्यार का सपना सजा रे
मिलने का उससे धीरज बंधा रे
क्या करूँ नशा मुझ पे चड़ने लगा रे
सतरंगी सपनों का चस्का लगा रे
बीत जाये जिन्दगी मुझे क्या पड़ा रे
क्या हो रहा है मुझे क्या ख़बर रे
अक्स उसका दिल में है जमने लगा रे
जीने का अब मुझ को मकसद मिला रे
मेहंदी का रंग उसपे दिखने लगा रे
लाली का रंग होठों पे चड़ने लगा रे
काजल भी नैणों में सजने लगा रे
अंखियों से दिल उसका कुछ कहने लगा रे

सपनों में प्यार का सपना सजा रे
मगर सुन ...
टुटा जब सपना...  तू तो मरा रे

                              ........इंतज़ार

फ़रेब ......एक गीत

हर किसी को यहाँ मिलते हैं
झूठे प्यार जिन्दगी के
कुछ धोखे हैं
कुछ मतलब हैं
यहाँ सच्चे प्यार
कहाँ मिलते हैं
कुछ दिनों के
हैं ये धोखे
असली यार कहाँ
मिलते हैं
जितना मिलता है
जी लो उसको
ना जाने
कब रिश्ते बदलते हैं
ना मैं मैं हूँ ना तू तू है
मुखोटों में रहते हैं
सब यहाँ जिन्दगी में
कितने जाल हैं
कितनी चाल हैं
कौन जाने
क्यों ये हाल हैं
क्यों किसी को नहीं मिलता
सच्चा प्यार यहाँ जिन्दगी में
                      ......इंतज़ार 

Thursday 25 December 2014

Wednesday 24 December 2014

शबनमी रात .....


शबनमी बहार में
फूल नहाते रहे
चमन में रात भर
प्यार की बौछार से

रात की याद में
फूलों ने भी
उन मोतिओं को
दामन में
सजो रखा

सुबह होते होते
फूलों को जब तूने तोड़ा
आँसू बन बह गईं
वो प्यार की बूंदें

कहाँ देखा तूने
दिल के दर्द को
जिसने प्यार में
गवाईं थी रात की नींदें

फिर उन उदास फोलों को
तूने अर्पित रब को करा
बेचारा रब भी उदास हुआ
जब प्यार का ये मन्ज़र देखा
फूलों के दिल में
वो चुभा खंज़र देखा
                      ......इंतज़ार

Tuesday 23 December 2014

Sunday 21 December 2014

सुनो........

लोग फूलों की तासीर बदलते ही फेंक देते हैं .....




Thursday 18 December 2014

राँझा (पंजाबी).....



तेरे कहे मैं राँझा ना बनया
साध कींवें बन जावाँ
तेरी सुन सुन जनम गवाया
तू ऐडा केड़ा सयाना

जो दिल चाहवे मैं बन जावां
जोगी भावें मलंग
चल पंडता तू करलै अपनी
मैं ताँ उडोनी अपनी पतंग

रब मंग्यां मनु रब न मिल्या
बस एक रांझन मुड़ मुड़ आयी
मैं की लैना जोगी बन के
जद रांझे रांझन पायी

ओह की मंगे रब कोलो
जिस खुद रांझन पाई
चल बलया असी ओथे चलिए
जित्थे रब न होवे कोई
                   .....इंतज़ार


गुस्ताख़ वक़्त ......


पढ़ाई के इम्तिहान थे
तो मेहनत से
हम हर इम्तिहान में
अव्वल दर्जे से पास होते थे

अब जिन्दगी के इम्तिहान
कभी ख़त्म ही नहीं होते
और हम हर इम्तिहान में
फेल होते रहते हैं

तैरना सीखा तो था
मगर वक़्त ही इतने गुस्ताख़ हैं
कभी वो हमें डूबने देते हैं
तो कभी हम खुद ही डूब जाते हैं
                               .......इंतज़ार

सुनो .....




Wednesday 17 December 2014

शर्म आती है....

शर्म आती है उन कायरों पर
भोले निर्दोष बच्चों पर
जो गोली दागते जाते हैं
और इसे अपना प्रतिशोध बताते हैं

शर्म आती है उनपर जो
कार बम्ब चलाकर
निर्दोष इंसानों के
टुकड़े टुकड़े फैलाते हैं
और इसे अपना धर्म बताते हैं

शर्म आती है उन दोगुलों पर
जो ऊपर से सहानुभूति
की चर्चा तो कर जाते हैं
अन्दर अन्दर मुस्काते हैं
और इसे धर्म का मामला बताते हैं

शर्म आती है उन ठेकेदारों पर
इंसानियत का रस्ता छोड़
जो अपने व्यापर चलाते हैं
इंसानियत का खून बहाते हैं
और इसे धर्म का आह्वान कह फुसलाते हैं
                                                           ......इंतज़ार



Sunday 14 December 2014

डेढ़ किलो का भेजा ......



डेढ़ किलो के भेजे ने
पूरे ब्रहमाण्ड को हिला रखा है
एहसासों की बीन बजा
हर किसी को
प्यार में पागल बना रखा है

सिर्फ़ डेढ़ किलो के भेजे में
ज्ञान का सागर समा रखा है
चाँद मंगल और ना जाने कहाँ कहाँ
यान पहुंचा रखा है

डेढ़ किलो का भेजा अब
इन्सान के अंगों का
थ्री डाईमेंनशनल प्रिंट बना
शरीर में फिट करा सकता है
वक़्त अब दूर नहीं
जब ये इन्सान बना सकता है

विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है
की ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति
बिग बैंग से हुई थी
तो क्या डेढ़ किलो के भेजे ने ही
भगवान बना रखा है

                               .........मोहन सेठी 'इंतज़ार'






Friday 12 December 2014

शमशान ....


अब मुझे इन शमशानों में
घूमने की आदत हो चली है
आओ मेरे साथ तुम भी सैर करलो
कल जब तुम्हें जरूरत होगी
इन्हीं शमशानों में सैर की
तो ये अजनबी से नहीं लगेंगे

जब कोई छोड़ के जायेगा तुम्हें
तब ये दर्द का पहाड़
तुम पे गिर जायेगा
और जब दफ़नाने आयोगे
उसकी याद को
तो तुम्हें यहीं आना पड़ेगा
आओ मेरे साथ तुम भी सैर करलो
इन शमशानों की

                        


Tuesday 9 December 2014

इर्षा .....


वोही समुद्र तट
जहाँ हम दोनों मिल
हर शाम लहरों का लड़क्पन
देखते हैं
सूरज की ढलती दीप्तिमान तपिश
मस्त पुरवाई का झोंका
और उसमें मीठी बौछार

समुद्र के सीने से लहरों का उभरना
एक दुसरे से ऊँची छलांग लगा
मानो पीछा कर रही हों
और आख़िर आपस में घुल जाना
खो जाना कहीं  रेत के विस्तार में
या चट्टान से टकरा
कूदना आसमान पे
मानो हमारे मिलन का
उत्सव मना रही हों ये लहरें

हम भी तो इसी उत्सव में जीते हैं
हर शाम यहीं पर
सीने से जो उमंगें
पुलकित हो उठती हैं
एक दुसरे की उमंगो का मेल
उल्हास और क्रीड़ा
फिर घुल के एक होना
कैसा अनुपम अनुभव है
एक दूजे को पा लेना

ये सपना था कैसा
जिस में तू थी लेकिन मैं ना था
इतनी दर्द उठी सीने में
जब देखा
तेरी परछाई... जो थी मेरी
किसी और को बाँहों में समेटे
उसी जगह बैठी थी
समुद्र तट पर
जहाँ हम रोज बैठते थे
मिलते थे घुलते थे

आँसू न रुके
इर्षा लगी इतनी
और विश्वास न हुआ
क्या कमी थी मेरे प्यार में
फिर ये बेरुखी कैसी
क्यों... क्यों....
मत जा छोड़ मुझे
न जी पाउँगा
मेरा हर माईना निकलता है
सिर्फ़ तुझ से
तुझ से शुरू हो
तुम पर ही समाप्त होता हूँ

बताओ क्यों किया ऐसे .....

रोते रोते जब आँसू खुश्क हुए
सोचा देखूँ कोन है
जिसने मुझ से छीना है तुझे
मगर सपना ही टूट गया

हो सकता है
मेरी ही परछाई थी वोह
बिलकुल मैं ही हूँगा
तु बेवफ़ा थोड़ा ना है .....
                                           .........

                           
            

Monday 8 December 2014

नहाना ....


शावर में जब गया नहाने......

लगा पानी की धारा
जैसे गंगा सा
बहता प्यार हमारा
गर्म नर्म पानी
ने मुझ को यूँ लपेटा
आगोश में हो तूने
जैसे मुझे समेटा

भाप उठती रही
गर्म पानी से ऐसे
तेरी मंडराती रूह आयी हो
जैसे जोड़ने अपने नाते

तेज पानी सर पे रहा
ऐसे थप थपाता
सोये एहसासों को
जैसे हो जगाता

पानी फ़र्श से टकराता
रहा ऐसी धुन लगाता
मेरी उमंगो के गीत
जैसे वोह हो गाता

पानी की ये बूंदें
सब मिलके धीरे धीरे
तेरी भावनाओं से मेरे
दिल को हो जैसे सिलाता

शीशे पे धुंद जमी थी
उंगली से यूँ लिखा था
"मुझे भूलना नहीं तुम
मेरा प्यार जगा के रखना"
क्या तुमने ये लिखा था

गीला बदन ये मेरा
तेरी प्यास से सुकाया
फिर मैंने इत्र जब लगाया
तेरी याद में जा खोया
तुझे याद कर के रोया

न आया कर तू हरदम
हर वक़्त इस तरह से
दर्द मेरा तू नहीं जानती
और तेरी ख़ामोशी
मुझ से बातें करने से नहीं मानती
                                                  ......इंतज़ार

Sunday 7 December 2014

कतरा .....


कतरा वो मेरे प्यार का
आंख से
कलम पे जा गिरा
स्याही फैल गई
जब नाम मैंने तेरा लिखा
चाहतें बन प्यार की
कमबख्त तुझ में जा मिला
चूमा जो तेरा नाम
तो मुझे तुझ में मैं मिला

तब से हुआ यकीन
कि हम तुम एक जान हैं ....
                          ........इंतज़ार 

Saturday 6 December 2014

तो मैं कुछ लिखूं ......


तू मुझे प्यार से अपने दिल में सजोये
तो मैं कुछ लिखूं
प्यार की बू तुझ से आये
तो मैं कुछ लिखूं
प्यार की चिंगार जल जाये
तो मैं कुछ लिखूं
तू एक उम्मीद मेरे दिल में जगाये
तो मैं कुछ लिखूं
तू मेरी धडकनों की रफ़्तार बढ़ाये
तो मैं कुछ लिखूं
तू मुझ में तलब जगाये
तो मैं कुछ लिखूं
तू मेरी उमंगों को आकाश पर उड़ाये
तो मैं कुछ लिखूं
नहीं तो दिल ही तोड़ दे ज़ालिम
टूटे दिल की ही सही... कुछ तो लिखूं
सब जल के ख़ाक हो जाये
तो फिर मैं लिखूं ....
                       .......इंतज़ार

Friday 5 December 2014

एहसासों की प्यास ....

एक कल्पना है सच्चा प्यार
बस झूठा सपना है यार

दुनिया का रंग
जब उसमें छू जाता है
प्यार बेचारा बेरंग हो जाता है

रिश्तों की बू
जब इस में आने लगती है
इसकी रंगत मुरझाने लगती है

जिस्मानी रिश्तों की अगर तृष्णा होती है
तो स्वार्थ की गुंजाईश इसमें दबी होती है
इसिलिये एहसासों की प्यास दूषित होती है
बेचारी कुंठित रोती है सच्ची प्यास कहाँ होती है
                                                               .....इंतज़ार

Thursday 4 December 2014

जीत ....


एक पतंग हूँ
किसी ने मुझे उकसाया 
और आसमान पर उड़ाया
उड़ता रहा खुले आसमान पर 
फिर एक पतंग मिली 
जो मेरी तरहां ऊँची उड़ान पर थी  
शायद ढूंडती होगी अपने प्यार को 
चाहत होगी मेरी तरहां उसे भी 
कोई उसके जैसा मिले 
जिसके साथ वोह अपनी उड़ान
मदहोशियों में उड़ सके 
अरमानों की लहर लिये
खुली हवाओं की तरंग में  

कुछ पास आये 
तो ख्वाईशों के तूफ़ान ने 
हवा के झोंके से मजबूर किया 
और हम एक दुसरे के आलिंगन में आ घिरे  
मेरी डोर उसकी डोर में आ लिपटी  
जो एहसास हमने फिर जिये 
चाहतों के जाम पिये  
कोई क्या जाने 

चाहा कुछ पल यूँ हीं जी लें 
मगर डोर किसी और के हाथ थी 
और उनको जल्दी थी हमें काटने की 
अपनी जीत की 
हमें लूटने की 
वोह क्या जानें
कि कटने की पीड़ा क्या होती है 
अपने प्यार से बिछुड़ने की
टीस क्या होती है 

हर कोशिश की जुदा न होने की 
मगर क्या करते
किसीने ऐसी खींच लगाई डोर में 
दोनों कट कर आलिंगन से जुदा हो गये 
फिर न जाने उसको किसने लूटा 
और मैं बेसहारा उड़ते 
गिरते पड़ते 
झाड़ियों में जा अड़ा
टूट गए मेरे अस्थी पंजर 
क्यों सोचें वह मेरा 
वोह तो अपनी जीत की ख़ुशी में 
फूले नहीं समा रहे होंगे
वोह जीत जो दूसरों को काट कर
उनके अरमानों को मसल कर
जीती जाये क्या सच में जीत है 
                     ....इंतज़ार

चाँद का सूरज ....


मैं चाँद हूँ
और तू मेरा सूर्य 
हमारा प्यार
चिरकाल से है
मेरी आंख हमेशा 
तुम पर ही लगी रहती है 
तुम सदेव
अपनी किरणों से
अपने प्यार के एहसासों
की बौछार कर
मुझे तृप्त रखते हो

तभी तो चांदनी है मेरी 

हाँ मैं तुम्हें निहारता रहता हूँ
मगर विवश हूँ
गले नहीं लग सकता
तुम पास आते हो और 
फिर दूर हो जाते हो इतना 
कि दुनियाँ के एक तरफ़ तुम 
और दूसरी तरफ मैं

हम दूरीयाँ बनाये
रखने पर मजबूर हैं
तेरा मेरा मिलना
असम्भव है
अगर हम मिल गए
तो इस दुनियाँ का ही
अंत हो जायेगा

प्यार की मजबूरियाँ 
भी अजीब हैं 
चाँद और सूरज भी असहाय हैं 
कितने मजबूर हैं 
मिल न पायेंगे
मगर कोई भी
इसे झुठला नहीं सकता 
ये प्यार सत्य है
ये प्यार अंनत है

सुनो ..... 
सूर्य और चाँद की तरहें
            ना जाने कितने और अफ़साने होंगे .......
                                                    .........इंतज़ार 





Friday 28 November 2014

अब रोना अच्छा लगता है....


बीते कल के ख़त पढ़ कर
रोना अच्छा लगता है
प्यार के टूटे हुए खंडरों में
लोट के आना अच्छा लगता है
तू नहीं तो कोई बात नहीं
तेरी याद में जीना अच्छा लगता है
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
जिन्हें कई जन्म
ना भुला पाना अच्छा लगता है
जितना मिला बहुत मिला
कुछ पल का प्यार भी
पाना अच्छा लगता है
पाने की कहानी सीमित है
खोने की कशिश जीने में
एक ज़माना लगता है
टूटे हुए पंखों  से
उड़ पाना अच्छा लगता है
तेरी पलकों से गिर जाना भी
शायद.... अब अच्छा लगता है
अब रोना अच्छा लगता है
                                             

Wednesday 26 November 2014

अब गाँधी कहाँ रहे हैं .....

चकोरी ने एक दिन
चाँद से पूछा
क्या ये चांदनी तुम्हारी है
चाँद ने सत्य का मार्ग अपनाया
कहा .....नहीं ये सूर्य का परावर्तन है
चकोरी ने गीत रोक दिया
चाँद पर इल्जाम लगाया
क्यों मुझे मंत्रमुग्ध बनाया
अब अगर चाँद चाहता तो
झूठ भी बोल सकता था
स्वार्थी होता तो
भ्रम को चला भी सकता था
चाँद ने सत्य का मार्ग अपनाया
और चकोरी का प्यार गवाया
लेकिन आज चाँद खुश है
कि उसने सत्य का मार्ग ही अपनाया

और अब गाँधी कहाँ रहे हैं .......
               ..........इंतज़ार

(परावर्तन=Reflection)

Wednesday 19 November 2014

modern India....


ग़जब हो गया
ये नया ज़माना
वाह रे बाबू
तेरा मुस्कुराना
फट से काम करना
न कोई रिश्वत
न कोई बहाना
मुस्कुराते मुस्कुराते
बस काम निबटाना
कहाँ गया वोह
रिश्वत खाना खिलाना

ना सड़कों पे गन्दगी
ना कहीं पान का निशान
जगह जगह लग गये हैं
अब सरकारी कूड़ा दान

पुलिस मुस्तैद है
गायब हैं गुंडे और सीटी बजाना
ये लो आया महिलाओं का ज़माना
पुलिस का काम है अब
सबको सुरक्षित बनाना
वाह रे वाह ये तो नया ज़माना

धुआं न मिट्टी
खुशनुमा है हवा
बिजली से चलती सब कारें यहाँ
ट्रक और बस सिर्फ़ गैस के सहारे
सोलर पैनल से सुसजित हैं छत हमारे
बिजली की कटौती अब नहीं होती
ठंडी हवा में अब आम जनता है सोती

सुसजित प्रशासन
ख़तम हुए सब राशन
पानी है हरदम गरम और ठंडा
नहाये जितना मर्जी
अब शावर में बंदा
फ़ेंक दिया हमने अब
बाल्टी और लोटा

मिलावट नहीं अब किसी चीज़ में
मिलता नहीं काली मिर्च में अब पपीता
मेरा भारत सबसे बेहतर
छोड़ आया पीछे देखो अमरीका
                             .......इंतज़ार







Tuesday 11 November 2014

चिडिया की कहानी .....



1.
पेड की ऊँची ऊँची 
मजबूत बाँहों में 
तिनका तिनका कर
माँ ने बसाया था घर
दिन रात बैठी अंडे गर्माती
बिन दाना पानी समाधी लगाती
जीवन का लक्ष्य यही था उसका
अंडे देना फिर चूजे बनाना
दाना खिला उनको उड़ना सिखाना
हैवानो की दुनिया में खुद को बचाना

2.
पंखो की झलक मुझे
नज़र आने लगी थी
सोचा जल्दी मुझे लग जाएँगे पर
ये सोच मेरा मन पुलकित हुआ 
फिर एक शाम ऐसा अचम्भा हुआ
लौटी नहीं माँ अँधेरा हुआ
बिलखती भूख से मैं रोने लगी
न जाने भयावह रात कैसे कटी
मगर माँ मेरी फिर कभी ना लौटी
अफवाह सुनी थी उड़ती उड़ती
मेरी माँ बिल्ली के हथे चढ़ी
बड़ा पडफडाई और गिडगिडाई 
सुना है वो मेरे लिये बड़ा थी रोई
सुबह तक डरी सहमी भूखी प्यासी
न पर थे मेरे के उड़ कहीं जाऊँ
गिरी अगर पेड से तो
गिर के मर ना जाऊँ
या बिल्ली होगी नीचे ताक लगाये
करती भी क्या कुछ समझ न आये 
बेबसी की थी ये मेरी कहानी
बिलख बिलख के मैंने
आवाज कई माँ को लगाई

3.
इतनी देर में 
एक चील थी आयी
मुझे देख वो जरा मुस्कराई
सोचा चलो किसी को तो तरस आयी
अब शायद मैं तो बच जाऊँ
फरिस्ता जो रब ने था भेजा
चोंच जो उसने मेरी तरफ बढ़ायी
सोचा मेरे लिये है शायद दाना लायी
चोंच तो उसकी थी एकदम खाली
झपट कर उसने मुझे चोंच में उठाली
मत पूछ कितनी पीड़ा थी जगी 
डर से मैंने अपनी आंखें थी मूंधी
जो हुआ था माँ को अब मेरी बारी आयी
माँ की तरहें एक वहशी के हाथों मेरी मौत आयी

कुछ दरिन्दे देखे थे उसने
इन्सान कहाँ अभी देखे थे उसने 
                                    ...........इंतज़ार 





















कहाँ हो ....


ढूंड रहा हूँ कब से तुझको
काल हो गया मिले तुझे 
शब्द सुनु तो चैन ख़ोज लूँ
मैं भी इस सन्नाटे में 

निकला ढूँढने जब में उसको 
कहीं निशाँ न मिला मुझे 
ढूंढ ढूंढ जब निराश हुआ तो 
देखा वोह है मेरे दिल में 
शव आसन में खामोश 
उदास निर्जीव

पूछा कुछ तो कहती
मुझ को कोसा होता दिलसे 
बददुआयें भी सुन के
चैन तो आ जाता मन में 

क्या करूँ कि चहकने लगे तू फिर 
सुनाने लगे तराने अपने 
जानता हूँ दर्द है जितना
अस्तित्व डूबा सैलाबों में

दिल ने कब्ज़ालिया है मुझको 
विवेक को मेरे बंधी बना
भावनाओं ने बहुत रुलाया है

सिर्फ़ भावनाएँ होंगी तो फिर 
तर्क का इंतकाल होगा ही 
समर्पण भी तो तभी है सम्भव 

दिल तो मैं कब से  दफना चुका था
न जाने कैसे ये कब्र में जी उठा
तुम को मिला और फिसल गया 
भावनाओं के कीचड़ में धंसता गया
वीवेक ने मेरे देखा इसे
चारसोबीसी करते हुए
तुरन्त पकड़ के इसको फिर
कब्र में सुलाया
सोते सोते ये बिचारा बहुत बिलखा
और बिलख बिलख रोया 
                                         ......इंतज़ार 






Monday 10 November 2014

मैं कौन....

कुछ ना
कुछ भी ना
खोजूँ मैं

ना मोक्ष
ना शंका

ना पूर्ण
ना अपूर्ण

ना गुरु
ना ज्ञान

ना दोस्त 
ना दुश्मन

ना अस्तित्व
ना समाप्ती

ना प्यार 
ना धोखा

ना रिक्त 
ना भराव

ना जीवन 
ना मृत्यु

ना आरंभ
ना अंत

ना शुन्य 
ना अनंत

ना नभ
ना तारे

ना धरती 
ना आसमान

क्यों कि मैं.." मैं " हूँ

                                          ....इंतज़ार 

Monday 3 November 2014

बचपन .....


कैसे लौटाउॅ जो बचपन था सादा
अकबरी दरबार का था मैं शहज़ादा
हर कोई मेरा दिल था बहलाता
गाली सिखा दी थी मुझको मोटी मोटी
जब मन करता तो सब को सुनाता
हर कोई मुझ को जान कर था उकसाता
तुतलाती जुबां से मैं फिर वोही गीत गाता
अंजान बेख़बर हरदम हँसता हसाता

यशोदा का लड्डू गोपाल था मैं
दूध और मक्खन की गंगा में नहाता
भैंस और गाये थीं अपनी हमारी
सुखराम माली रोज दूध दोह जाता

स्कूल ना जाने का बहाना बनाता
मैं अक्सर भाग जाता
या चुप चाप छुप जाता
वर्ना पेट दर्द का मैं नाटक रचाता

आमों के बाग़ थे हर कोने में वहीं पर
घूमते घुमाते कहीं से आम ढूंड लाता
सड़क के किनारे थे एक सौ पेड़ फैले
आम और जामुन कहीं शहतूत के मेले
यहाँ वहाँ इमली थी और बेरी की झाड़
छुट्टियों में यूँ ही समय बीत जाता था यार

वोह टयूबवेल की टंकी में कूद जाना
ठन्डे पाने से गर्मीयों में नहाना
लकीरों के खेल में किसी दीवार
या पत्थर का मुश्किल था बचपाना
बड़े होते होते हुआ बचपन पुराना
बड़ा ख़ूब था दोस्त वोह अपना ज़माना
                                        .....इंतज़ार





सिर्फ़ तेरे लिये ....


तेरे माथे का टीका
मुझे चाँद सा दीखा
तेरा ये गजरा
गहरी जुल्फों पे सजरा
तेरे माथे की बिंदिया
उड़ाये मेरी निंदिया

गालों पे लाली
पलकों पे रंग
आँखों में कजरा
नाक में नथनिया
गले में गलुबंद
और हीरों का हार
सब करें मुझ पे वार

कानो में बाली
तूने सजाली
हाथों में मेहंदी और
तेरा ये कमरबंद
हाय लिपटा तेरे अंग

चोली की कसन
साडी से झलके उजला बदन
चूड़ी की छन छन
तेरा बाजुबंद
कैसे चिपका कसके तेरे संग

तेरी अंगूठी की चमक
ये नाखूनों के रंग
पतली नाज़ुक उँगलियाँ
सोहना बदन
ये साडी का निखार
बजे दिल का सितार

पैरों में आलता का रंग
सुंदर लगे मेहंदी के संग
तेरा ये बिछुआ
तेरे चलने का ढंग
मारे बिच्छु का डंग 

उफ़ ये सृंगार 
दिल तो गया हार 

                   ......इंतज़ार 





Sunday 2 November 2014

जिंदगी


पहाड़ों की चोटिओं पर
पिघलती है बर्फ जब 
होता है जन्म एक धारा का 
लगती है बहने जो 
धीरे धीरे

पत्थरों और पेड़ों से 
करती खिलवाड़ सी
कभी पत्थर के ऊपर से 
कभी नीचे से
कभी अगल बगल से
निरंतर बढ़ती जाती है

जब गिरती है ऊँचाइयों से
 पकड़ती है गति वो 
 बिखरी धारा छोटी छोटी
संभलती सी एक होती   
बड़ी और गहरी होती जाती है

चंचल प्रवाह
पथरों से टकराना
पहाड़ों की ढलान पे
निर्विरोध आगे बड़ते जाना 
भयावह भवर का प्रदर्शन 
है उसका उन्माद ये 
यौवन का आभास ये 

जब बड़ी हो कर 
नदी का रूप लेती 
पहुँचती है मैदानों में
सतह पर समतल शांत बहती जाती है 
बचपन और लड़कपन बीता
जीवन का नया अध्याय होता आरंभ है 
सामने उसके एक लम्बा सफ़र 
जीवन की सच्चाई को
देखने का समझने का अवसर 

फिर मिलता है इन्सान उसे
दूषित कर जहर पीने को 
करता है विवश उसको
नियम और व्यवस्था का 
सबक सिखाता है उसको 
बाँध बना कर रोक देता है 
उसके उल्हास को
उसकी स्वतंत्रता को
काट कर उसको नहरें निकाल देता है
और उसका लहू 
किसी और को पिला देता है 

शोषण का शुभारम्भ  
अब जीवन उसके अपने हवाले नहीं
कोई और करता है निर्णय उसके लिये
और ये ताड़ना चलती है लगातार
हर पल कुछ और जहर 
घोल दिया जाता है उसमें 

सब सहती रोती चिल्लाती 
बहती रहती है वो 
आखिर एक दिन 
नजर आने लगता है
एक समन्दर जो उसका 
इंतज़ार करता है हरदम
अपने में समाने को
उसके हर मैल को धोने को
एक बार फिर बिन बाँध के
स्वतन्त्र हो जाने को

क्या ख़बर ये पानी फिर उडेगा
फिर जा पहुंचेगा पहाड़ों की ऊँचाइयों पर 
बर्फ गिरेगी लेकिन 
एक दिन फिर पिघलेगी
और शुरू होगा एक नया जीवन
आत्मा वोही जो 
समुद्र रूपी विशाल आत्मा में 
विलीन हो गए थी
लौट आयी 
आज फिर एक नयी यात्रा की शुरुआत 
इन्सान क्या तेरी भी ऐसी ही बात  ....

                                   ........इंतज़ार





Saturday 1 November 2014

मेरी दुआ


क्यों कहते हो अब दिल लगाने को
छोड़ आया हूँ कब से मैं हर बहाने को

हर शाम तेरी गली में घूमता हूँ
तेरी यादों के बबंडर से मिलके आने को

न गुल हैं.. न तू है.. न महक तेरी
गुलशन में आऊँ तो क्या होगी वजह मेरी

तेरी यादों के समन्दर में डूब जाता हूँ
अब तो सांसें भी लेना भूल जाता हूँ

एक बार तो बुलाया होता मुझ को
कभी ऐसे भी आज़माया होता मुझ को

मुमकिन है तुम रोयी होगी बिछुड़ के मुझ से
मैं तो रोने और हँसने में फ़र्क भूल जाता हूँ

मैंने तो सिर्फ़ तुझे अपना दिल दिखाया था
बता मैंने कब तेरा दिल दुखाया था

हर गम मैंने अपने ही दिल में छिपाया था
तुझको मैंने कब कोई शिकवा सुनाया था

जुदा न करना उसकी यादों के जख्म मेरे दिल से
मैं हर बार रब से ये ही दुआ क्यों मांग आता हूँ

                                             ......इंतज़ार 





Wednesday 29 October 2014

प्रदूषण .....



ऐ इन्सान एक तू है
जो हर झरने को
हर नदी को
यहाँ तक की
हर समुद्र को
दूषित बनाता है
गंगा की पूजा करता है
और उसी को
मैला कर रुलाता है

दुनिया का प्रदूषण
तेरी देन
फेक्ट्रियों की चिमनी 
उगलती जहर हर पहर
हर गतिविधि तुम्हारी
वातावरण में फैलाती लाचारी
ये धुऐं और रासैनिक प्रदूषण
बने बीमारी के आभूषण
दम घोट रहे जीव जन्तु
और फसलों का
सोच क्या होगा तेरी
आने वाली नसलों का

हर विकार की जड़ तू है
पापों का गढ़ तू है
रुक जा संभल जा
अपने तरीकों से
वर्ना अपने
पापों में खुद
डूब जायेगा
फिर कुछ भी
तुझे नहीं बचाएगा
सारी धरती पे
प्रलय हो जाएगी
अफ़सोस तुझे समझ
बहुत देर में आयेगी
                        ............इंतज़ार

(...क्षमा चाहता हूँ
कौन सुनता है "इंतज़ार" तेरी दुहाई को
मैं दबा हूँ जीवन के पहाड़ के नीचे
तू भैंस के आगे बीन ना बजा
मुझे जीवन चलाना ना सिखा...)

Monday 27 October 2014

दो पहिये....


जीवन चलाता तो भगवान है 
क्या साईकिल सा है जीवन 
साईकिल के दो पहिये   
हैं दोनों बराबर  
लेकिन महत्व बराबर है कहाँ  
अगला पहिया आदमी 
पिछला पहिया औरत
जंजीरों में औरत बंधी  
दिशा बदले आदमी  
जानो कौन मजबूर है 

 जीवन बैलगाड़ी सा क्यों नहीं 
दोनों पहिये बराबर 
महत्व बराबर 
संतुलन निश्चित   
चलाता तो फिर भी भगवान है 
मगर औरत और आदमी 
एक से इन्सान हैं 

बच्चे बुढ़े घर बार 
सुख दुःख का संसार 
सब इसी गाड़ी पर सवार 
दोनों पहिओं पर बराबर भार
तभी तो चले 
अच्छे से संसार 
                                    ........इंतज़ार 



तेरी आस ......


तेरे बिन पेड़ो ने
पतझड सी लगाई हुई है
फूलों ने भी न खिलने की
कसम खाई हुई है
भवरों ने तो गली में
आना ही छोड़ दिया है
यहाँ तक कि सूरज भी 
निकलता नहीं आज कल
क्यों की बादलों ने
गम की झड़ी लगाई हुई है

मैं तो रोती रहती हूँ
घुटनों पर सर रख कर
न जाने क्यों
सारी कायनात ने
तेरे आने की आस लगाई हुई है

....इंतज़ार